ज़बानें सीखना लगता है अपना जहान और बड़ा-चौड़ा बनाने जैसा काम. मेरे लड़कपन, हाइस्कूल के दिनों में तो अंग्रेज़ी की कक्षा में सोचा था दुनिया देखूँगा अंग्रेज़ी के ज़रिए से. हाँ, वैसे देख तो सकते हैं और ज़रूरत भी पड़ती है कहीं देश के बाहर रवाना होना हो तो. फिर भी सोचा है कि जो दुनिया अंग्रेज़ी की खिड़की के बाहर ही देखें वह तो पूर्ण रूप से ' दुनिया ' कह सकते हैं या नहीं? इस सारी दुनिया में ज़्यादातर लोग मातृभाषा के रूप में अंग्रेज़ी नहीं बोलते, और शायद ऐसे लोगों से अधिक लोग अंग्रेज़ी जानते भी नहीं होंगे, जिनने अंग्रेज़ी सीखके अपना ले पाई है. क़रीब आ जाएँगे अगर जिससे बात करने को है उसकी ज़बान या दोनों की ज़बानों में सीधी बात हो सके तो? अभी अपनी ख़्याल यहाँ लिखता हूँ और दूसरों के ब्लॉग में उनकी ख़्यालात देखता हूँ हिंदी भाषा के ज़रिए से, यह किसी दूसरी ज़बान में तो हो सकता ऐसे ही?
मगर और एक मसला भी. इंडिया जैसे बहुभाषीय समाज में तो बात और जटिल होगी. यानी, राजभाषा हो या बॉलीवुड फ़िल्मों की हो, हिंदी भी इंडिया में सब लोगों की नहीं है. दक्षिण में कम ही लोग जानते हैं, उत्तर में जानते-बोलते तो भी ज़्यादा लोग अपने घर में स्थानीय भाषा बोलते हैं. हिंदी भाषा भी ख़ुद के अंदर बहुत सी बोलियाँ होती हैं. क़रीब आते आते तो भी बीच में दूरी रहती जाएगी.
हाँ, यह ऐसी बड़ी मज़दूरी होगी कि कोई न यक़ीन करे उसमें फ़ायदा होगा. और वह भी सच होगा कि बात सिर्फ़ ज़बान से नहीं होती. हमज़बानों के बीच कभी झगड़े भी होते हैं लड़ाई भी. बदले में कभी ज़बान ज़रूरी ही नहीं दोस्ती के राह में. हरेक अपनी शख़्सियत से आपस में बात हो जाती है.
...तो फिर शख़्सियत क्या, हर किसी के लिए अपनी स्थानीय भाषा व अपनी बोली उसकी शख़्सियत का कहीं एक बड़ा अहम हिस्सा होगी, जो ज़िंदगी भर कभी भूला या खोया नहीं जाएगा. और किसी के लिए ऐसी एक ही नहीं, कई हो सकती हैं. इसी लिए जितनी दोस्ती करने का जज़्बा हो जिससे, उतनी काफ़ी फ़ायदा होगा उसकी ज़बान सीखने का. बेमतलब सी कोशिश भी जिसको ऐसी लगती हो तो करने लायक है.
मुझे यही सूझा है जब टी.वी. पे एक बूढ़े मर्द का दास्तान देखा. उनकी उम्र अब 102 साल की है और पेशे से एक विशेष स्कूल स्थापित करके अध्यक्ष का काम करते है, जहाँ ऐसे बच्चों के लिए अच्छी पढ़ाई मुहैया कराते हैं जो बच्चे अपनी दिमाग़ी तकलीफ़ों की वजह से आम स्कूल की शिक्षा से इनकार किए गए हैं, क्योंकि पहले उन ख़ुद के संतान को भी वही हुआ था. जब वे 95 साल के थे, उनको पता चला कि चीन में ऐसे बच्चों की शिक्षा के लिए बहुत न सुविधाएँ उपलब्ध हैं न तैयार. उस समय से चीनी भाषा सीखना शुरू किया ताकि चीन में शिक्षा का अपना दानिश-तरीक़ा सिखा सकें. कोरियन भाषा भी 70 साल के समय सीखना शुरू किया तो अब उनको अच्छी तरह आती है. वे कहते हैं, ज़िंदगी इतनी लंबी तो होती है कि कभी तक भी कोई कोशिश करने में नालायक न हो, और कुछ नया करने को कभी भी देर तो नहीं है. यह सुनके साहस दिलाया गया जैसा लगा.
पर मैं भी उनके कहे से जोड़के और एक बात मानता हूँ. ज़िंदगी का समय सीमित भी होता है. केवल इधर से उधर ज़्यादा टूटी-फूटी भाषाएँ याद करके भूल जाने से अच्छी तरह कई ही सीख लेना और फ़ायदेमंद होगा. शायद मेरा समय बहुत बाक़ी होगा, कोशिश तो करता जाऊँगा....