यानी, लगातार दो अंकों में कवर स्टोरी के लिए भारत को चुन लिया गया.
पहला अंक है जिसमें भारत को देखते हैं उसकी व्यापारिक सक्षमता के नज़रिए से, दूसरा है राजनैतिक सक्षमता के नज़रिए से. और कवर पर "インド" (भारत) के नीचे ऐसे लिखे हैं,
" 動き出す巨象経済 "
(चलने लगा है महा-हाथी अर्थव्यवस्था)
" 超大国の誇りと野望 "
(सुपर-पॉवर का गर्व और आकांक्षा)
दरअसल इन कई सालों से आम जापानी लोगों के बीच भारत की छवि थोड़ी-बहुत बदल चुकी है...
प्राचीन युग से तो बौद्ध धर्म का सुदूर देश था भारत. फिर आधुनिक युग की शुरूआत से द्वितीय विश्वयुद्ध के अंत तक, इतिहास की हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी तरह दोनों मुल्कों को क़रीब ले आईं थीं, जब रवींद्रनाथ ठाकुर (टैगोर) और सुभाष चंद्र बोस यहाँ आए, मेरी यूनिवर्सिटी के हिंदी-उर्दू विभागों (जो पहले एक ही हिंदुस्तानी विभाग थे) की स्थापना भी हुई. युद्ध के बाद भी एक न्यायाधीश, राधा बिनोद पाल थे, जिन्होंने तोक्यो युद्ध-अपराध न्यायाधिकरण में अकेले ऐसा अनुरोध किया कि तब तक जापान निर्दोष ही है जब तक न्याय की समानता के अनुसार जय पाने वाले देशों को भी अपने युद्ध-अपराध का दोष न लगाया जाए.
शीतयुद्ध के दौरान जापानी सरकार के विदेश-नीति के नक़्शे में भारत थोड़ा दूर हो गया था, जहाँ सत्थर के दशक में जापानी नागरिकों के लिए विदेश-यात्रा आज़ाद होने के बाद भारत ऐसी यात्रियों की बड़ी मंज़िल होने लगा. फिर भी आम लोगों के बीच भारत की छवि जैसी की तैसी रही थी.
नब्बे के दशक से दुनिया में भूमंडलीकरण का असर काफ़ी साफ़ नज़र आने लगा और आज की इस मशहूर कहानी कहीं भी सुनाई देने लगी है कि भारत और चीन, तीन अरब लोगों के, यानी दुनिया की एक-थिहाई आबादी वाले देश ही बनेंगे आगे इक्कीसवीं शताब्दी में सुपर-पॉवर. सो ऐसी सिलसिले में यह पत्रिका भी ऐसी तरह निकली है.
माहौल केवल 5-6 साल पहले भी ऐसा था कि तब भारत के नाम को आई टी से जुड़ाने वाले लोग बहुत कम ही होते थे और भारतीयों को रोज़ देखने का मौक़ा भी ज़्यादा नहीं था सिवाय भारतीय रेस्ट्राँ के. सन् 2000 में पूर्व जापानी प्रधानमंत्री योशिरो मोरी (森 喜朗) भारत आए, जिसके बाद दोनों देशों के बीच एक वीज़ा-समझौता किया गया. अब भारतीय आई टी इंजीनियरों को तीन साल तक लागू मल्टिप्ल-व्यापारी-वीज़ा मिल सकता है, और फ़िलहाल लगभग 14000 (दस साल पहले 4000) भारतीय नागरिक जापान में रहते हैं जिनमें 3000 ऐसे इंजीनियर हैं. अब भारत के साथ करी के देश वाला पूर्वाग्रह भी बदल रहा है.
दूसरी तरफ़ जापान में काम करने वाले भारतीय इंजीनियोरों और उनके परिवारों के लिए कई तरह की सुविधाएँ भी तैयार हो रही हैं.
जापान में रहने के लिए भाषा एक समस्य तो होती है क्योंकि यहाँ अंग्रेजी में ही ख़रीदारी जैसा कुछ रोज़ाना काम करना उतना आसान नहीं है जितनी आसानी से अमरीका या अन्य पश्चिम देशों में ऐसा काम हो जाएगा. फिर भी पहले आए भारतीय पड़ोसियों से सामूहिक सहारा ले सकें तो कोई लफड़ा-वफड़ा नहीं होगा. और पहले से बड़े शहरों में कहीं न कहीं पाकिस्तानी या बंगलदेशी मालिकों की हलाल-दुकानें होती हैं, जहाँ मिलते हैं मुसलमानों के हलाल-गोश्त के अलावा मसाले-दाल जैसे बुनियादी खाद्य उत्पादन, कपड़े, फ़िल्म की कॉपी वीडियो, साबुन-शैंपू जैसे कॉस्मेटिक्स, वग़ैरह हर ज़रूरतों के पदार्थ. अब ऐसी चीज़ें इंटर्नेट पर भी इधर उधर ख़रीद सकते हैं बिना घर से बाहर और दूर तक जाके.
बच्चों की पढ़ाई के लिए तो पिछले साल तोक्यो में एक भारतीय अंतरराष्ट्रीय स्कूल शुरू हुआ है, जो स्थानी पब्लिक-स्कूल (जापानी मीडियम, फ़ीज़ मुफ़्त) और निजी इंटर्नेशनल-स्कूल (अंग्रेज़ी-मीडियम, फ़ीज़ हाइ) के अलावा माता-पिताओं के लिए अच्छा विकल्प बन सकता है.
ऐसे भी लिखा है, आज से कई सालों में जापान में रहने वाले भारतीय नागरिकों की संख्या और बढ़ सकती है. तो आगे मेरी हिंदी भी कुछ काम तो आएगी, या...??