मई 01, 2011

तब धुँआ निकला तो....


बेशक आप सभी को नाम तो पता होगा, फ़ुकुशिमा दाइ-ईची (प्रथम) परमाणु संयंत्र. विकिरण संकट का उपरिकेंद्र, जहाँ पिछले महीने भूकंप-त्सुनामी के अगले दिन अचानक एक रिएक्टर भवन के छत और दीवार फटे, फिर धुँए के साथ-साथ कई रेदियोधार्मिक पदार्थ बाहर फिज़ाओं में रिस जाने लगे.


अब इस अनहोनी दुर्घटना के छोड़े अनहोनी दुष्प्रभाव का भोज, सँभालने को देशवासियों के लिए बेहद ज़्यादा ही पड़ रहा हैं. उनमें से एक है, भारी संख्या में लोगों की पलायन. फ़ुकुशिमा में बहुत से गाँवों-शहरों के बासिंदों को कुछ ही अपने सामान लिए अपने घर छोड़ना पड़ा, और अब बड़े पैमाने पर लोग नौकरियों-कारख़ानों से लेकर खेतों-पशुओं तक सरासर अपनी आजीविका खोने के कगार पर अचानक धकेल दिए गए हैं.

यही है प्राकृतिक आपदा में उपजे मानवकृत संकट, जिसे न कहें चोट पर लगे नमक बल्कि शायद सही कहें तो तेज़ाब, क्योंकि इसका दाग़ लंबे अरसे से, सोचो ज़िंदगी भर, कहीं न कहीं तो रह जाता है और आप को पता लगाना बेहद नामुमुकिन होता है कि इस दाग़ कहाँ कहाँ लग गया और उसका असर आगे कब, कितना, और कैसा पड़ेगा.

विकिरण का इस "दाग़" सिर्फ़ शारीरिक प्रभाव की बात तक ही सीमित नहीं हो रहा है. अब विकिरण के चिंता के मारे, बाज़ार में बहुत से ऐसे कृषि और मत्स्य उत्पादों का भाड़ी नुक़सान पड़ रहा है, जिनके उत्पादक रेडियोधर्मी पदार्थों के फैलाव से काफ़ी दूर होते है, और न किसी असामान्य से अधिक मात्राओं में ऐसे पदार्थ पाए गए हैं, न कि विकिरण से प्रोदूषित होने का कोई सँभावना होता. लेकिन ऐसे उत्पाद के दाम बाज़ार में आडे से भी कम तक घटे, या कुछ उत्पाद बिल्कुल विधिक रूप में प्रतिबंधित न होते हुए भी सौदागरों से अचानक इनकार किए जाने लगे.

ख़ासकर अभी विदेश में जापान से आयातित उत्पादों (बेशक विकिरण-अप्रभावित क्षेत्रों के होते भी) के लिए विकिरण-मुक्त सुरक्षा प्रमाणपत्र जैसी कुछ शर्तें लगाई जाती हैं तो ज़्यादातर उत्पादकों- निर्यातकों को कभी अपने लाभ से ज़्यादा क़ीमत चुकाने वाले इस प्रमाण के कारण विदेशी व्यापार से हाथ खींचना पड़ रहा है. वह भी तौलिये जैसे अखाद्य औद्योगिक उत्पाद तक शामिल है.

डरना तो ज़रूरी होगा और किसी को भी ऐसे जोखिम उठाने का फ़ायदा भी नहीं है. मगर असल में "जोखिम" क्या होता है और कहाँ तक इससे डरना सही होता है, यह पता लगाना भी बहुत ज़रूरी है. वरना "फ़ू-हियो ही-गाइ (風評被害)", जापानी में अर्थात "अफ़वाह से पहुँचने वाले नुक़सान" के शिकार रहे लोगों को कोई चारा नहीं मिलेगा.


इसके अलावा ऐसे लोग भी कम नहीं थे जो अपनी सुरक्षा सुनिश्चित बनाने के इरादे में स्वेच्छा से कहीं घर से दूर गए, या तो देश के दूसरे कोने पर हो या विदेश में. वैसे, फ़ुकुशिमा संयंत्र के आपात स्थिति बताई जाने के फ़ौरन बाद तोक्यो के हवाई अड्डों से विदेश नागरिकों की बड़ी पलायन भी हुई. शायद कोई जापानी लोग भी विदेशी सहकर्मियों-मित्रों के जापान से भागकर रवाना हुए देखकर थोड़ा बहुत हैरान हुए होंगे.


इस पृष्ठभूमि में कई कारण तो हैं, जैसे पश्चिम देशों के लोगों को चेरनोबिल दुर्घटना की ताज़ा याद होती है, और तत्कालीन हलचल में जानकारी काफ़ी नहीं मिलती थी इस लिए ज़्यादा से ज़्यादा सुरक्षित उपाय लिया गया होगा. वैसे, बहुत ही देशों की सरकारों ने अपने सहनागरिकों को जापान से शरण लेने के लिए उच्च चेतावनी (या आदेश तक) जारी की गई थी, और कई देशों ने अपने तोक्यो-स्थित दूतावास भी बंद किए थे.

फिर भी कुछ हद तक यह भी सच है कि कहीं ज़्यादा लापरवाही बरते मीडिया वालों के हाथ से ढलकी थी चिंताओं की पेट्रोल, जिस वजह हलचल में आग लग गई. मेरा मतलब यह नहीं है कि सारे के सारे मीडिया वालों ने तभी अपने दर्शकों-पाठकों को डराने-उकसाने जैसा ग़लत काम ही किया. उनमें से बहुत लोग सराहनीय ढंग से अपनी पेशेवर ज़िम्मेदारी अच्छी तरह नभाई है जबकि थोड़े ही हिस्से कुछ लापरवाह रहे होंगे. लेकिन थोड़े क्यों न हों, ऐसे कवरेज से कुछ हद तक बड़े-बड़े दुष्प्रभाव मच गए भी होंगे.

बहुत प्रवासी लोगों, जो दशकों से जापान में बसे हैं और जापानी भाषा भी काफ़ी समझते हैं, ने अपने ही मूल देश के मीडिया से ऐसे कवरेज पर संशोधन करने को अनुरोध किया हैं, जो कुछ ग़लतफ़हमी के बुनियाद पर बने हों या ज़्यादा लापरवाह और संसानीखेज़ साबित हुए हों (जैसे इटली का उदाहरण). व्यक्तिगत ब्लोगों के अलावा, "वाल ऑफ़ शेम" जैसे वेबसाइटों पर सामूहिक तौर पर बहुत से कवरेज को दर्ज किया गया है. उस वेबसाइट पर मुझे बहुत कवरेज का पता चला, जिनमें से ख़ासकर नीचे वाली सीएनएन की दो वीडियो रिपोर्ट बहुत बुरी लगी.

समझता हूँ कि पत्रकार भी इंसान है तो विकिरण के डर में कुछ घबरा भी जाएगा, लेकिन मानता भी हूँ कि ऐसा व्यवहार तो कम से कम ऑफ़ लाइन के वक़्त पर करना चाहिए था, नहीं???


पता नहीं, विवादित कंपनी के दफ़्तर नहीं तो हॉस्टल जाके क्या कॉमेंट लेना चाहती थी..., धमकी लेने वाले बेचारे कर्मचारियों से, वह भी ऑफ ड्यूटी के दिन पर ??? दरवाज़े तक निजी परिसर में घुस आके कुछ पत्रकारिता और क़ानून के भी हद से आगे बढ़ गई...


और यह बुरा तो नहीं, बस ऐसा लगा है कि क्या है यही भाषायी संदर्भ में कुछ "टिपिकल अमेरिकन" रवैया ??? अपने बगल में अनुवादक होते भी क्या "लैंग्वेज बरियर" ?


सीएनएन और उन संवाददाताओं से कोई दुश्मनी नहीं है. ताहम ऐसी पत्रकारिता का बुरा परिणाम तो आखिरकार जापानी समाज को भुगतना पड़ रहा है, तो उन्हें कुछ निर्दोष माना नहीं जा सकता. वैसे, न्यूज़वीक पत्रिका के जापानी संस्करण के संपादकों ने ऐसे कई पश्चिमी देशों के मीडिया के साथ अपनी शिकायत ज़ाहिर की. (मूल जापानी लेख; एक चिट्ठाकार द्वारा अंग्रेज़ी में अनुवादित लेख, जहाँ टिप्पणियाँ अनुभाग में अंग्रेज़ी-भाषी प्रवासियों के बीच हुई गर्मागर्म बहस भी कुछ देखने लायक है.)

लेकिन विदेशी मीडिया पर ही दोषी ठहराना उचित नहीं है. जापानी मीडिया में भी ऐसा कुछ हुआ, जैसे एक पत्रिका के कवर पन्ने पर कहीं ज़्यादा ही सनसनीख़ेज़ और डरावनी फ़ोटो छाप लिया गया जिसे लेकर काफ़ी तेज़ बहस छिड़ी और निंदा की गई तो पत्रिका के संपादकों को अपनी पत्रिका और वेबसाइट पर माफ़ी माँगनी पड़ी.
लाल रंग में शीर्षक: "आ रही है विकिरण"


अधिकांश तौर पर जापानी केंद्रीय सरकार का भी कोई औचत्य नहीं है, ख़ासकर मंत्रियों और ऑफिसरों के बीच अंदरूनी गड़बड़ाहट-अव्यवस्था पर, जिस वजह से देश-विदेश दोनों तरफ़ से पब्लिक को सरकार द्वारा घोषित जानकारी पर बड़े संदेह पैदा हुआ है.

खैर, जब पिछले महीने परमाणु संयंत्र संकट के खतरे पर हलचल मच रहा था, तभी कई मीडिया वालों ने ठीक से पत्रकार की अपनी भूमिका और सामाजिक दायत्व निभा नहीं पाई, कुछ ग़लती से, कुछ भयभीत मन से, या कुछ लाभ की चाह में. कारण जो भी, सबक़ के लिए याद रखनी होगी.