अगस्त 16, 2011

दक्षिण कोरियाई थिएटरों में "3 Idiots"

जब दक्षिण कोरिया की राजधानी सियोल के गिम्पो हवाई अड्डे पर था, उड़ान के वक़्त तक थोड़ा टाइम बिताने को हवाई अड्डे से जुड़े शौपिंग मॉल के अंदर यों ही घूम रहा था, और फिर वहाँ के मल्टीप्लेक्स तक आ पहुँचा, तो अचानक नज़र पड़ी इस विज्ञापन बोर्ड पर.


पता चला है कि 18 अगस्त से दक्षिण कोरिया के सिनेमा घरों में "3 Idiots" रिलीज होने वाली है, जिसका कोरियाई टाइटल "세 얼간이 (से ओल्गानी)" है.



आजकल दक्षिण कोरिया भारत के साथ आर्थिक संबंध बहुत क़रीब और मज़बूत बनाता नज़र आ रहा है, सो कुछ इस तरह मनोरंजन के रूप में भी प्रचार-जुड़ाव होना स्वाभाविक तो होगा ही, मगर क्यों यह फ़िल्म दक्षिण कोरिया में अब थिएटर रिलीज की जा रही है?

लगता है, एक बड़ा वजह यह होगा कि जब भारत और कई भारतीय बहु-प्रवासी देशों में लगभग डेढ़ साल पहले रिलीज हुई तभी बॉक्सऑफिस में रिकॉर्ड-तोड़ ज़बरदस्त कामयाबी मिली (जैसे फ़िल्म के पत्रक पर बड़ी ज़िक्र होती है कि कोरियाई वोन में परिवर्तित 81.1 अरब तक भारत में कमाई हुई).



मगर इसके अलावा, शायद इस लिए भी कि फ़िल्म ने ऐसे मुद्दे उथाए, जैसे एलीट उच्चशिक्षा सिस्टम के बुरे प्रभाव, परिवारों की तरफ़ से छात्राओं पर पड़ने वाले मानसिक दबाव, और शिक्षण को लेकर पूरे समाज पर छाई मनोदशा, आदि. दक्षिण कोरिया के समाज में भी ऐसी मनोदशा बहुत गहेरी होती है कि अपने संतानों के अच्छी नौकरी मिलने के लिए माँ-बाप शिक्षण पर बहुत ज़ोर देते हैं, आर्थिक तथा मानसिक दोनों रूप में. हो सकता है कि फ़िल्म प्रचालक कंपनी का ऐसा इरादा रहा हो कि यह फ़िल्म वहाँ के लोगों को कुछ जागृत करे और दूसरे समाज की तुलना अपने ही समाज की समस्याओं पर ग़ौर करने का मौक़ा बने.

मई 01, 2011

तब धुँआ निकला तो....


बेशक आप सभी को नाम तो पता होगा, फ़ुकुशिमा दाइ-ईची (प्रथम) परमाणु संयंत्र. विकिरण संकट का उपरिकेंद्र, जहाँ पिछले महीने भूकंप-त्सुनामी के अगले दिन अचानक एक रिएक्टर भवन के छत और दीवार फटे, फिर धुँए के साथ-साथ कई रेदियोधार्मिक पदार्थ बाहर फिज़ाओं में रिस जाने लगे.


अब इस अनहोनी दुर्घटना के छोड़े अनहोनी दुष्प्रभाव का भोज, सँभालने को देशवासियों के लिए बेहद ज़्यादा ही पड़ रहा हैं. उनमें से एक है, भारी संख्या में लोगों की पलायन. फ़ुकुशिमा में बहुत से गाँवों-शहरों के बासिंदों को कुछ ही अपने सामान लिए अपने घर छोड़ना पड़ा, और अब बड़े पैमाने पर लोग नौकरियों-कारख़ानों से लेकर खेतों-पशुओं तक सरासर अपनी आजीविका खोने के कगार पर अचानक धकेल दिए गए हैं.

यही है प्राकृतिक आपदा में उपजे मानवकृत संकट, जिसे न कहें चोट पर लगे नमक बल्कि शायद सही कहें तो तेज़ाब, क्योंकि इसका दाग़ लंबे अरसे से, सोचो ज़िंदगी भर, कहीं न कहीं तो रह जाता है और आप को पता लगाना बेहद नामुमुकिन होता है कि इस दाग़ कहाँ कहाँ लग गया और उसका असर आगे कब, कितना, और कैसा पड़ेगा.

विकिरण का इस "दाग़" सिर्फ़ शारीरिक प्रभाव की बात तक ही सीमित नहीं हो रहा है. अब विकिरण के चिंता के मारे, बाज़ार में बहुत से ऐसे कृषि और मत्स्य उत्पादों का भाड़ी नुक़सान पड़ रहा है, जिनके उत्पादक रेडियोधर्मी पदार्थों के फैलाव से काफ़ी दूर होते है, और न किसी असामान्य से अधिक मात्राओं में ऐसे पदार्थ पाए गए हैं, न कि विकिरण से प्रोदूषित होने का कोई सँभावना होता. लेकिन ऐसे उत्पाद के दाम बाज़ार में आडे से भी कम तक घटे, या कुछ उत्पाद बिल्कुल विधिक रूप में प्रतिबंधित न होते हुए भी सौदागरों से अचानक इनकार किए जाने लगे.

ख़ासकर अभी विदेश में जापान से आयातित उत्पादों (बेशक विकिरण-अप्रभावित क्षेत्रों के होते भी) के लिए विकिरण-मुक्त सुरक्षा प्रमाणपत्र जैसी कुछ शर्तें लगाई जाती हैं तो ज़्यादातर उत्पादकों- निर्यातकों को कभी अपने लाभ से ज़्यादा क़ीमत चुकाने वाले इस प्रमाण के कारण विदेशी व्यापार से हाथ खींचना पड़ रहा है. वह भी तौलिये जैसे अखाद्य औद्योगिक उत्पाद तक शामिल है.

डरना तो ज़रूरी होगा और किसी को भी ऐसे जोखिम उठाने का फ़ायदा भी नहीं है. मगर असल में "जोखिम" क्या होता है और कहाँ तक इससे डरना सही होता है, यह पता लगाना भी बहुत ज़रूरी है. वरना "फ़ू-हियो ही-गाइ (風評被害)", जापानी में अर्थात "अफ़वाह से पहुँचने वाले नुक़सान" के शिकार रहे लोगों को कोई चारा नहीं मिलेगा.


इसके अलावा ऐसे लोग भी कम नहीं थे जो अपनी सुरक्षा सुनिश्चित बनाने के इरादे में स्वेच्छा से कहीं घर से दूर गए, या तो देश के दूसरे कोने पर हो या विदेश में. वैसे, फ़ुकुशिमा संयंत्र के आपात स्थिति बताई जाने के फ़ौरन बाद तोक्यो के हवाई अड्डों से विदेश नागरिकों की बड़ी पलायन भी हुई. शायद कोई जापानी लोग भी विदेशी सहकर्मियों-मित्रों के जापान से भागकर रवाना हुए देखकर थोड़ा बहुत हैरान हुए होंगे.


इस पृष्ठभूमि में कई कारण तो हैं, जैसे पश्चिम देशों के लोगों को चेरनोबिल दुर्घटना की ताज़ा याद होती है, और तत्कालीन हलचल में जानकारी काफ़ी नहीं मिलती थी इस लिए ज़्यादा से ज़्यादा सुरक्षित उपाय लिया गया होगा. वैसे, बहुत ही देशों की सरकारों ने अपने सहनागरिकों को जापान से शरण लेने के लिए उच्च चेतावनी (या आदेश तक) जारी की गई थी, और कई देशों ने अपने तोक्यो-स्थित दूतावास भी बंद किए थे.

फिर भी कुछ हद तक यह भी सच है कि कहीं ज़्यादा लापरवाही बरते मीडिया वालों के हाथ से ढलकी थी चिंताओं की पेट्रोल, जिस वजह हलचल में आग लग गई. मेरा मतलब यह नहीं है कि सारे के सारे मीडिया वालों ने तभी अपने दर्शकों-पाठकों को डराने-उकसाने जैसा ग़लत काम ही किया. उनमें से बहुत लोग सराहनीय ढंग से अपनी पेशेवर ज़िम्मेदारी अच्छी तरह नभाई है जबकि थोड़े ही हिस्से कुछ लापरवाह रहे होंगे. लेकिन थोड़े क्यों न हों, ऐसे कवरेज से कुछ हद तक बड़े-बड़े दुष्प्रभाव मच गए भी होंगे.

बहुत प्रवासी लोगों, जो दशकों से जापान में बसे हैं और जापानी भाषा भी काफ़ी समझते हैं, ने अपने ही मूल देश के मीडिया से ऐसे कवरेज पर संशोधन करने को अनुरोध किया हैं, जो कुछ ग़लतफ़हमी के बुनियाद पर बने हों या ज़्यादा लापरवाह और संसानीखेज़ साबित हुए हों (जैसे इटली का उदाहरण). व्यक्तिगत ब्लोगों के अलावा, "वाल ऑफ़ शेम" जैसे वेबसाइटों पर सामूहिक तौर पर बहुत से कवरेज को दर्ज किया गया है. उस वेबसाइट पर मुझे बहुत कवरेज का पता चला, जिनमें से ख़ासकर नीचे वाली सीएनएन की दो वीडियो रिपोर्ट बहुत बुरी लगी.

समझता हूँ कि पत्रकार भी इंसान है तो विकिरण के डर में कुछ घबरा भी जाएगा, लेकिन मानता भी हूँ कि ऐसा व्यवहार तो कम से कम ऑफ़ लाइन के वक़्त पर करना चाहिए था, नहीं???


पता नहीं, विवादित कंपनी के दफ़्तर नहीं तो हॉस्टल जाके क्या कॉमेंट लेना चाहती थी..., धमकी लेने वाले बेचारे कर्मचारियों से, वह भी ऑफ ड्यूटी के दिन पर ??? दरवाज़े तक निजी परिसर में घुस आके कुछ पत्रकारिता और क़ानून के भी हद से आगे बढ़ गई...


और यह बुरा तो नहीं, बस ऐसा लगा है कि क्या है यही भाषायी संदर्भ में कुछ "टिपिकल अमेरिकन" रवैया ??? अपने बगल में अनुवादक होते भी क्या "लैंग्वेज बरियर" ?


सीएनएन और उन संवाददाताओं से कोई दुश्मनी नहीं है. ताहम ऐसी पत्रकारिता का बुरा परिणाम तो आखिरकार जापानी समाज को भुगतना पड़ रहा है, तो उन्हें कुछ निर्दोष माना नहीं जा सकता. वैसे, न्यूज़वीक पत्रिका के जापानी संस्करण के संपादकों ने ऐसे कई पश्चिमी देशों के मीडिया के साथ अपनी शिकायत ज़ाहिर की. (मूल जापानी लेख; एक चिट्ठाकार द्वारा अंग्रेज़ी में अनुवादित लेख, जहाँ टिप्पणियाँ अनुभाग में अंग्रेज़ी-भाषी प्रवासियों के बीच हुई गर्मागर्म बहस भी कुछ देखने लायक है.)

लेकिन विदेशी मीडिया पर ही दोषी ठहराना उचित नहीं है. जापानी मीडिया में भी ऐसा कुछ हुआ, जैसे एक पत्रिका के कवर पन्ने पर कहीं ज़्यादा ही सनसनीख़ेज़ और डरावनी फ़ोटो छाप लिया गया जिसे लेकर काफ़ी तेज़ बहस छिड़ी और निंदा की गई तो पत्रिका के संपादकों को अपनी पत्रिका और वेबसाइट पर माफ़ी माँगनी पड़ी.
लाल रंग में शीर्षक: "आ रही है विकिरण"


अधिकांश तौर पर जापानी केंद्रीय सरकार का भी कोई औचत्य नहीं है, ख़ासकर मंत्रियों और ऑफिसरों के बीच अंदरूनी गड़बड़ाहट-अव्यवस्था पर, जिस वजह से देश-विदेश दोनों तरफ़ से पब्लिक को सरकार द्वारा घोषित जानकारी पर बड़े संदेह पैदा हुआ है.

खैर, जब पिछले महीने परमाणु संयंत्र संकट के खतरे पर हलचल मच रहा था, तभी कई मीडिया वालों ने ठीक से पत्रकार की अपनी भूमिका और सामाजिक दायत्व निभा नहीं पाई, कुछ ग़लती से, कुछ भयभीत मन से, या कुछ लाभ की चाह में. कारण जो भी, सबक़ के लिए याद रखनी होगी.

अप्रैल 11, 2011

है वसंत आत्मसंयम का...

इस साल भी तोक्यो में आ गया है हवा की नरमाहट में फूलों से भरपूर होने वाला बहार का मौसम. इन दिनों शहर के हर कोने में साकुरा यानी चेरी के पेड़ों पर घने से घने खिले पाए जाते हैं, फूल हलके से गुलाबी रंग के, जैसे सब मामूली सी, हमेशा की तरह ही.


मगर अब साकुरा के फूल दिखते कुछ अलग हैं. हाँ, फूल का रंगोरूप तो ज़रूर कुछ बदला ही नहीं है, बल्कि बदले शायद हम हैं फूल देखने वाले और हमारा समाज. बहुत कुछ बदले हैं कहीं न कहीं उसी दिन से, जब पिछले महीने भूकंप और त्सुनामी से तबाही घठी और इससे अकल्पनीय स्तर से भाड़ी नुकसान पड़ा.

आज उस क़यामत वाले दिन से पूरा एक महीना हुआ. दोपहर 2:46 बजे, जिस वक़्त पर ठीक एक महीने पहले 11 मार्च को वह भूकंप हो उठा, देश भर में कुछ पल का मौन रखकर श्रद्धांजलि अर्पित की गई. इस एक महीने का अरसा मुझे कुछ जल्दी से बीता लग रहा है, पर वास्तविक अवधि से कुछ लंबा सा भी लग रहा है. इस दौरान हालात ऐसा था कि लोग कुछ सदमे से निकल तो पाए फिर भी रोज़मर्रे ज़िंदगी में कहीं उथलपुथल तो होती रही. अब पहले की तरह साधारणता लोगों के जनजीवन में वापस आने लगी है, कम से कम तोक्यो में तो. यहाँ के निवासी लोग पीड़ित इलाकों से कहीं दूर है और ऐसे इलाकों की तुलना काफ़ी आरामदेह हालात में रह पा रहे हैं.

हालांकि इस आपदा के परिणामों के बारे में टीवी और इंटरनेट समाचार के ज़रिए लोग काफ़ी सूचित किए जाते रहे हैं. अगर आप यहाँ जापान में रहें और कुछ घंटों के लिए ही टीवी पर समाचार देखते रहें तो शायद ख्वामख्वाह समझ जाएँगे कि भूकंप, त्सुनामी या विकिरण, या फिर तीनों से पीड़ित इलाकों में हालत अभी भी कितनी गंभीर होती रही है और वहाँ लोग कैसी बड़ी मुसीबतों से जूझ रहे हैं. मुझे लगता है कि अब जनता के बीच बड़ी सहानुभूति जगी हुई है और बहुत से लोग पीड़ित लोगों की मदद या हौसला अफ़जाई के लिए जो भी कार्य अपनी क्षमता से हो सकें करने लगे हैं.

इस सिलसिले में एक रुझान अब समाज में उभर कर सामने आया है. कुछ ऐसे कार्य (कम से कम सार्वजनिक में) बिल्कुल बंद करने या कुछ सामान्य से अत्यंत नम्रता से किए जाने लेगे हैं, जैसाकि कोई पार्टी या त्यौहार आदि अवसरों पर शोर मचाना, मस्ती करना और फिर मज़ा लेना, आदि. ख़बरों में बताया जा रहा है कि होटलों और शौपिंग मॉलों में कुछ कम लोग आते हैं और शादी की रस्मों और पर्यटक यात्राओं की बुकिंग भी बड़े पैमाने पर ग्राहोकों की तरफ़ से रद्द की जा रही हैं. देश के अलग-अलग हिस्सों में कई बड़े-बड़े उत्सव भी कैंसल हो जाते हैं और कई उत्सव सामान्य से अधिक शांतिपूर्वक शैली में या पूरी तरह से असार्वजानिक रूप में मनाए जाते हैं.

माना जा रहा है कि इस बदलाव की पृष्ठिभूमि में लोगों की ऐसी मानसिकता है कि पीड़ित लोगों की भावनाओं पर ध्यान देते हुए हम आम नागरिकों को अपनी जनजीवन में संयम बरतनी चाहिए क्योंकि पीड़ित इलाकों में लोग बहुत गंभीर परिस्तिथियाँ सह रहे हैं और संघर्षों के पीछे कहीं न कहीं चिंता और उदासी में डूबे हैं. इसके अलावा कुछ अमली वजहात भी रही हैं, जैसे पिछले हफ़्ते तक तोक्यो समेत कई पड़ोस क्षेत्रों में रोलिंग अंधकार की आशंका होती रही थी जिसके कारण यातायात और कुछ सामाजिक कार्य में बड़ी दिक्क़तें पेश आई थीं. यही प्रवृति बस एक शब्द "जिशूकू (自粛)" यानी "आत्मासंयम" से संक्षेप में वर्णन की जाती है (और वैसे, न्यूयॉर्क टाइम्स और बीबीसी समेत कई अंग्रेज़ी मीडिया में भी इस जापानी शब्द के अंग्रेज़ीकृत "jishuku" का परिचय हो रहा है).

हो सकता है कि कहीं लोग सक्रिय रूप में बर्दाश्त करते हों, या कहीं आलोचना की झंझट से बचने के लिए ही ऐसा करते हों. पर मुख्य कारण जो भी हो, अब इस जिशूकू वाली प्रवृति और इसका प्रभाव देश भर में समा रहे हैं, किसी तरह की व्यक्तिगत गतिविधियों से लेकर निजी कंपनियों के व्यापारों तथा पब्लिक पॉलिसी तक.

वैसे, इस साकुरा के मौसम में अकसर लोग फूल देखने को पेड़ के नीचे चले आते हैं और कभी छुट्टी में अपने सहकर्मियों या दोस्तों-परिवारों के साथ खली हवा में खानपान भी किया जाता है. लेकिन इस साल तो कुछ थोड़े ही लोग समूह बनाके बैठे पाए जाते हैं. और यहाँ तक कि पिछले महीने तोक्यो के राज्यपाल ने एक पत्रकार सम्मेलन में मीडिया से कहा कि "साकूरा के फूल खिल गए तो क्या, आओ ज़रा एक गिलास शराब पीके ख़ूब गपशप करें, अभी ऐसी स्थिति में नहीं हैं हम", और इस टिप्पणी के बाद तोक्यो स्थानीय सरकार द्वारा प्रबंधित कई पार्कों में ऐसा आधिकारिक निर्देश भी जारी किया गया है कि वहाँ कुछ पार्टी की तरह ख़ूब मस्ती न करें. और उन पार्कों में हर शाम को साकुरा के पेड़ों पर लाइट अप होता था, जिस सेवा को भी बिजली बचत उपाय के तौर पर बंद किया गया है.

ऐसी जिशूकू वाली प्रतिक्रिया को लेकर काफ़ी तर्क-वितर्क भी हो रहे हैं. विरोधियों का कहना है कि देश भर में लोग कुछ ज़्यादा से मनोरंजन और खरीदारी जैसे उपभोग कार्यों से आत्मसंयम रख रहे हैं. ऐसी प्रतिक्रिया पूरे देश की अर्थव्यवस्था से लेकर पीड़ित इलाकों के पुनर्निर्माण और अनेक पीड़ित लोगों की पुनरुत्थान प्रक्रियाओं तक पर दुष्प्रभाव ही डालेगी और इस लिए ऐसे अनहोनी दुष्चक्र में फँसने से बचना चाहिए. अब ऐसी आवाजें पीड़ित इलाकों से भी बहुत आ रही हैं (जैसे यहाँ), और मदद के लिए कुछ स्वेच्छा से वहाँ के उत्पाद खरीदने को प्रचार भी किया जा रहा है. जापानी सरकार ने भी "अति-आत्मसंयमित" लोगों के झुकाव को लेकर काफ़ी चिंता जताई है, जैसे एक सरकारी एजेंसी ने आयुक्त के नाम पर लोगों को प्रार्थना दी है कि "पूरे देश में शक्त बहाल करने के लिए" सांस्कृतिक और कलात्मक गतिविधियों से संयम न करें.

ऐसे बहस में मैं कहीं जिशूकू विरोधियों से सहमति रखता हूँ, पर कहीं उन विचारों से असहमत भी हूँ. तोक्यो राज्यपाल की तरह शासन की तरफ़ से संयम करवाना (वह भी कुछ कठोरता से व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर दबाव डालते हुए) तो बिल्कुल ग़लत और बेहूदा कोशिश है. ऐसे कहीं अर्ध अनिवार्य "आत्म"संयम में पीड़ित लोगों के लिए कोई फ़ायदा होगा भी नहीं. अगर होगा तो बस संयम करवाने वालों की आत्मसंतुष्टि का ही. मगर "ज़्यादा खर्च करो, देश बचाओ" वाले तर्क पर भी कुछ शक रहता है. अगरचे लोग और ज़्यादा पैसे निजी खरीदारी में खर्च कर डालेंगे इससे देश के अर्थव्यवस्था के लिए तो लाभ पैदा होगा ही, ऐसा लाभ तो न सीधा न पूरा पहुँचेगा पीड़ित इलाकों के क्षेत्रीय अर्थव्यवस्था तक और हर एक पीड़ित तक. कुछ ऐसा भी दिख जाता है, मानो "पीड़ितों के हित" को कहीं बहाना बनाया जा रहा हो. मेरा कहेने का मतलब है कि पीड़ित इलाकों की चीज़ें खरीदकर वहाँ के उत्पादकों का सहारा देना तो बिल्कुल ठीक है मगर इस लाभ की पहुँच कुछ आंशिक रूप से बड़ी कंपनियों और अमीर तबकों तक ही सीमित न रहे. आखिर, निजी उपभोग को ज़्यादा से ज़्यादा बढ़ावा दिया जाता रहे भी हद तो होगी और उसपर ज़्यादा निर्भर भी नहीं कर सकेंगे, और सरकार के अपनी ख़ासा भूमिका निभाए बिना पूरे से पूरे पीड़ित इलाकों को, और सारे के सारे पीड़ित लोगों को सहारा देते रहना बेहद मुशकिल होगा.

और, जिशूकू वाली व्यक्तिगत तथा सामाजिक मनोदशा को पूरी तरह नकार न दे पाने का (और ऐसा करना भी न चाहने का) एक और कारण भी है. मेरा मानना है कि इतनी शोकपूर्ण घटनाओं के बाद कुछ थोड़ा-बहुत भावुक होना, दूसरों के दर्द को समझना, उनका साथ देते हुए कहीं शोक में डूब जाना, और शोक मनाने की तरह कुछ कार्यों का आत्मसंयम भी रखना. यही तो गैर-पीड़ित लोगों की भी बहुत स्वाभाविक प्रतिक्रिया और मनोवृत्ति होगी.

अब पुनर्निर्माण की गति को लेकर यह नहीं भूलना चाहिए कि लोगों को अपने-अपने ग़मों से बमुश्किल समझौता कर पाने में काफ़ी देर तो लगेगी और अपनी-अपनी मुसीबतों से कोई जल्दी से निपट पाएगा तो कोई आहिस्ते से. क्योंकि इस बार की आपदा में ऐसे लोग भी कम नहीं हैं जिनके अपने अज़ीज़ त्सुनामी आने के बाद लापता हो गए हैं और शायद त्सुनामी में दूर बह जाने की वजह अब तक उनकी लाशें तक नहीं मिल रही हैं. ऐसे लोग चाहे कितनी बार भी अनजाने मृतकों को तो श्रद्धांजलि देते रहें, पर अपने प्रियों के लिए ही न अंतिम संस्कार कर सके हैं, नकि ऐसे अवसर पर ठीक से उनकी मृत्यु का शोक भी मना सके हैं.

बहुत लोग अब भी सुबह से शरणस्थल निकलकर तत्कालीन शावागारों में, मलबे बने घर या कर्मस्थल के आसपास या समुद्रतटों पर चले आते हैं और दिन ढलने तक ऐसा चक्कर लगाकर घूमते है. पीड़ित इलाकों में बहुत से लोग ऐसी ही बड़ी आस में शव की तलाश कर रहे हैं कि कहीं मर चुके तो भी कम से कम शव तो परिवार के पास लौटके आ जाए और पूर्वजों के साथ ख़ानदानी कब्र में ठीक से दफ़न कर लिया जाए.

शायद ऐसे लोगों के जीवन की घड़ी कहीं तो उस दिन से रुकी हुई होगी, जबकि समाज में बाकी लोगों को तो शोक से बाहर आने की अपनी-अपनी समयसीमा तय करके आगे चलना ही होगा. फिर भी, मेरा और दूसरों का यह अरमान रहेगा कि चाहे कितनी देर तक उनके क़दम वहीं ठहरते जाएँगे भी, कभी न उन्हें आगे बढ़ाने को कोई जल्दबाज़ी हो न कि उन्हें खींच-खींच के मज़बूरी में बढ़ाया जाए, और बस समाज की तरफ़ से इंतज़ार किया जाता रहे. आज और भविषय में शहर के पुनर्निर्माण के चलते हुए , ऐसा नहीं होने दिया जाना चाहिए, जैसाकि तब भी शोक में डूबे लोगों को समाज के किनारों पर धकेल दिया जाता हो और ऐसे लोगों को कहीं पिछड़ता हुआ महसूस कराया जाता हो.




चलो, अब बात कुछ ज़्यादा लंबी हो गई....



तो, फिर से ज़रा देखें, मज़ा भी लें, बहार के चंद नज़ारे हैं साकुरा और अन्य फूलों के.

















भूकंप और त्सुनामी से ग्रस्त उत्तर-पूर्वी इलाकों से भी अब साकुरा के खिलने की ख़बरें आने लगी हैं. ए फूलो, वहाँ किसी के दुःख दर्द को कुछ हल्का तो कर दें, अगर भुला ही न सकें भी.

मगर बिल्कुल अच्छा हुआ, कम से कम फूल तो अपने ख़ूब रंग दिखाने से जिशूकू कभी नहीं करते...

मार्च 17, 2011

कहीं धुंधुली सी है "साधारणता"

एक अख़बार के संपादक ने अपने संपादकीय लेख पर नीचे वाले सवाल डाला, जैसे अपने से और दोसरे पाठकों और सारे समाज से पूछ रहे.
क्या यह अभी बुरा सपना देख रहे हैं हम ? या फिर, इस भारी तबाही मचने तक हम जिस लंबी नींद में सोए थे, उससे जागकर हक़ीक़त का सामना करने को है वक़्त ?
जैसे इस सवाल ने एक दिशा सुझाई, शायद भाड़ी प्राकृतिक आपदा का सामना कर हमें उसके भय और अपनी विवशता के सोच में डूबना छोड़ कुछ और करना बाकी है.


पिछले शुक्रवार दोपहर में विनाशकारी महाभूकंप और त्सुनामी आने के बाद, अब पूरे पांच दिन हो गए हैं. यहाँ तोक्यो में तो सामायिक अव्यवस्था और आशंकाएँ जो शुक्रवार को घने से घने हो रही थीं अब काफ़ी कम हो जा रही हैं, जबकि उत्तर-पूर्वी जापान के आपदा प्रभावित क्षेत्रों में बचाव और जाँच के कार्य विस्तृत होते ही नई-नई जानकारियाँ हमारे सामने आने लगी हैं.

हाल ही में प्रभावित क्षेत्रों से आने वाली ख़बरों में कई तो ऐसी हैं कि त्सुनामी-तबाही से पीड़ित शरणार्थियाँ कुछ दिनों से लापता रहे अपने-अपने परिवार सदस्य, रिश्तेदार या दोस्त से आँसूभरी पुनर्मिलन कर पाए. फिर भी ज़्यादातर ख़बरें तो बेहद दर्दनाक ही होती रही हैं. जैसाकि, त्सुनामी-लहरों के बहाव में कौन-कौन निगले गए, कहाँ कितने-कितने शव मिले, और मलबों के बीच नष्ट हो चुके अपने घर से कैसे सामना करना पड़ा, आदि. दिनबदिन बढ़ती ही तो जाएगी मृतकों की संख्या. मगर इसके पीछे ज़रूर होती हैं असंख्या दुखद कहानियाँ, जिनमें से बस थोड़े ही अंश अब मीडिया में कथित हु होते हैं.

मुझे कुछ दृढ़ता से महसूस हो रहा है कि क़ुदरती मुसीबतों का क़हर तो क्यों न हो हमारी कल्पना के बाहर, उसी क़हर से आम लोगों की जो रोज़मर्रा ज़िंदगी बर्बाद की गई और उनकी जो वर्तमान में असहाय स्थितियाँ चल रही हैं, वही तो सब हमारी भी हो सकती थीं (और, बेशक, अभी भी आगे किसी वक़्त हो सकती हैं). शायद इसी वजह से मुतासिर लोगों की ग़मगीन दास्तानें कभी कभी सुनने-देखने को हमसे बर्दाश्त नहीं होती हैं...



जहाँ तक मेरी और आसपास शहर की हालत का सवाल है, पीड़ित लोगों से विपरीत वैसे हालत शायद कुछ बिगड़ी भी नहीं कही जा सकती. न मेरे घर में और नज़दीक दुकानों में ख़ुराक व पेट्रोल आदि ज़रूरी चीज़ें ख़त्म हुई हैं, न बिजली पानी और गैस की लाइनें बंद हुई हैं, न कि रात को अंधेरों में ठंड और भूख झेलनी पड़ी हैं. ऐसे मायने में तो अभी हमारी दैनिक जनजीवन में कोई गंभीरता नहीं आ रही है और एक नज़र तो बिल्कुल दिखता है जैसे सब कुछ ठीक-ठाक चल रहे हों.

हालांकि यक़ीनन भूकंप ने दिल में कहीं गहरे से अपना छाप छोड़ डाला है.

आफ्टरशॉक यानी मुख्या भूकंप के बाद आने वाले झटकों पर प्रतिक्रया होती है. इन दिनों बहुत अक्सर छोटे-मोटे झटके आते रहे हैं और जब कहीं झटकता महसूस हुआ तो इसके प्रति पहले की तुलना आजकल कई गुणा ज़्यादा सचेत हो रहा हूँ. तनाव भी कहीं ज़्यादा होती है. सरकारी एजेंसी की तरफ़ से चेतावनी दी जा रही है कि आगे कई दिनों में फिर से बड़े भूकंप होने की काफ़ी संभावना बची हुई है. सो, रात की नींद भी कहीं उथली होती है और हलके झटके से भी उड़ जाती है.

सामाजिक प्रभाव भी काफ़ी हो रहा है. जब कल खरीदारी करने सुपरमार्केट गया तो बोटल पानी से लेकर चावल रोटी और इन्स्टैंट नूडलज़ तक कई तरह के खाद्य पदार्थ उस दुकान के शेल्फ़ से बिल्कुल ग़ायब हो गए थे. रास्ते पर कई पेट्रोल स्टेशनों पर गाड़ियों की लंबी लाइन लगी हुई थी और खारीदारी पर दस लीटर तक का प्रतिबंध लगाया गया था.

परमाणु संयंत्र से रिस रहे रेडियोधर्मी पदार्थों को लेकर भी काफ़ी चिंता जताई जा रही है. अब हालत देखते ही देखते बद से बदतर हो जाती नज़र आ रही है. लोगों के बीच डर होता ज़रूर है, फिर भी वह किसी स्तर (और शायद किसी क्षेत्र) तक ही सीमित होता है.

इन चार-पांच दिनों से तोक्यो निवासियों को बिजली कटौती और इसकी आशंका ने सबसे ज़्यादा छेड़ा है. यह हालत इस कारण हुआ कि कई उर्जा संयंत्र बंद होने के बाद बिजली उत्पादन काफ़ी घट गया, और राजधानी क्षेत्र के लिए कमी हो रही है. अब पिछले सोमवार से बिजली कंपनी से ऐलान दी गई है कि तोक्यो और पड़ोसी आठ प्रांतों के विशाल क्षेत्र को अब पांच समूहों में बांटा जाता है और हर समूह के कई इलाकों में प्रतिदिन लगबग तीन घंटों के लिए बारी-बारी से बिजली कटौती होगी. जापान में ऐसी योजित बिजली कटौती की जाना, वह भी इतने बड़े पैमाने पर, बिल्कुल असामान्य बात है. इस लिए जनजीवन में अफरा-तफरी मच रही है.

इस तरह तोक्यो में भी, जहाँ आपदा प्रभावित क्षेत्रों से लोग शारीरिक और कुछ मानसिक रूप से दूर रहे हैं, कहीं न कहीं जनजीवन पर गहरा प्रभाव हो रहा है....

मार्च 11, 2011

क़यामत-सा दिन

भूकंप के वक़्त घर पर था और बड़ी ख़ुश क़िस्मत थी कि सब सलामत रहे हैं हमारे यहाँ तो. लेकिन लोग बेहद ख़ौफ़ज़दा रह गए हैं. इतना ज़ोरदार झटका कभी आया नहीं था कि घर के अंदर तो क्या, बाहर सब नज़ारों में दुनिया हिल रही थी.

फ़िलहाल मोबाइल वग़ैरह फ़ोन सेवा तो सुस्त या बिल्कुल बंद हो रही है. नगरपालिका की तरफ़ से घोषणा मिली है कि बिजली भी कई क़रीब शहरों में बंद हो रही है. न्यूज़ में कह रहा है कि तबतक तोक्यो राजधानी क्षेत्र में कम्यूटर ट्रेन की लाइनों पर रोक लगाई जा रहेगी जबतक ट्रेन की पटरियों पर जाँच पूरी न हो, और टीवी पर घर लौटने को इच्छुक यात्रियों की बड़ी भीड़ स्टेशनों पर लगी हुई नज़र आ रही है. ऐसा भी कह रहा है कि यह रोक आज सारी रात के लिए हटेगी नहीं, इस लिए बदले में उपलब्ध किए जाने वाली बस सेवा और टक्सी पर लंबी-लंबी कतारें लग रही हैं.

शाम ढलते ही अँधेरा छाया और साथ ही काफ़ी ठंड हो रही है. अभी शारीरिक रूप में तो ख़ासा नुक़सान नहीं हुआ, बल्कि मानसिक तौर पर कुछ प्रभाव हो रहा है. बहुत परेशान हो जाते हैं, जैसे बार बार टीवी न्यूज़ में तटीय इलाक़ों में त्सुनामी से मची तबाहियाँ देखकर, और, अब तक न थमने वाले भूकंपोत्तर लहरों को महसूस करके.


इन दसेक सालों में भूकंप की तबाहियों के बारे में अनगिनत ख़बरें देखा करता रहा था, पर पक्के मायने में तो तसव्वुर नहीं कर पाई थी और कहीं लगता था कि अपने ऊपर ऐसा नहीं होगा. अब ऐसा एहसास तो बिल्कुल नहीं रह गया है.