मार्च 11, 2012

पहली वर्षगाँठ और श्राधांजलि

आज पहली वर्षगाँठ आ रही है. दोपहर दो बजकर छियालीस मिनट पर जब उस भयावह भूकंप ने अचानक आकार लाखों लोंगों की रोज़मर्रे ज़िंदगी हमेशा के लिए बदल दी, उस मौके पर देश के हर कोने पर मौन प्रार्थना की जाएगी.

ऊपर ऐसा लिखते हुए भी मैं यकीन नहीं कर पा रहा हूँ कि उस दिन से पहेले और बाद में क्या क्या फ़र्क पड़े हैं अपनी जिंदगी पर, और किस किस तरह असर होते जा रहे हैं इस एक साल के दौरान से लेकर आगे लगातार. यहाँ तोक्यो में भी बड़े झटके तो हुए ही, पर मैं और परिवार समेत मेरे करीब के परिचित लोग किसी मायने में भी इस हादसे से मुतासिर नहीं हुए हैं. न घर खोया न दोस्त-रिश्तेदार, नौकरी या जायदाद. हल्की सी चोट भी नहीं लगी.

हाँ, भूकंप के तुरंत बाद से कई हफ़्तों तक यहाँ की साधारण दैनिक जनजीवन कहीं ठप गई थी, जैसे परमाणु संयत्र दुर्घटना के परिणामस्वरूप बिजली संकट और विकिरण प्रसारण के भय से काफ़ी अफ़रा-तफ़री मची. शहर में हर जगह दुकानों के शेल्फों से कुछ खाद्य उत्पाद गायब हो गए और पेट्रोलियम पंपों पर लंबी लाइन लगी. मीडिया पर हर रोज़ आती थीं त्सुनामी तबाही की भयानक छवियाँ और प्रभावित क्षेत्रों के परिवारों की दर्दनाक कहानियाँ. अखबार पर छपने वाले मृतकों और लापता लोगों के सामयिक आंकड़े प्रतिदिन बढ़ते ही जाते रहे. फिर भी, तब मार्च महीने का मौसम तो ठंडी हवाओं के बीच कहीं ताप और नरमाहट पहुँचाने लग रहा था और पेड़ों की शाखाओं पर कलियाँ साफ़ नज़र आने लगी थीं. बस मामूली तौर पर ही, पर कुछ अजीबो-गरीब छाप में, मोहल्ले में धीमे से वसंत की दस्तक सुनाई दे रही थी. ऐसे हर तरह के ढेर सारे दैनिक अनुभवों की श्रृंखला में उस भूकंप का जीवंत अर्थ ढाला गया हुआ है मेरे लिए (या शायद इस अवधि देश में रहे बहुत से अन्य "अप्रभावित" लोगों के लिए भी).

एक तरफ़ अंदर व्यक्तिगत रूप से और दूसरी तरफ़ बाहर सामाजिक ढंग से सोच कुछ बदली तो ज़रूर होगी, लेकिन यह मुझ से ठीक वर्णन नहीं किया जाता कि बदलाव कहाँ कैसे कितना हुआ है और किस दिशा में जाएगा.
हाल ही में तो सिर्फ़ इस बात की कृपा ही मान पा रहा हूँ कि इसी बदलाव ने निजी दृष्टि से तो ऐसी शोकपूर्ण घटना के बावजूद सौभाग्य से कोइ दुखद मोड़ नहीं लिया, वरना शायद ही अब मैं ऐसा कुछ लिख पाता.


आज के पुलिस एजेंसी आंकड़ों के मुताबिक, इस प्राकृतिक आपदा में मृतकों की संख्या १५,८५४ तक पहुँची हुई है और अभी भी ३,१५५ लोग लापता हुए हैं. ये आंकड़े किसी दूसरे देशों की आपदा, युद्ध, अकाल जैसी घटनाओं की तुलना कितना अपेक्षाकृत कम हैं या ज़्यादा. मुझे यह मालूम नहीं है और मैं इसपर कोइ मायना नहीं रखता. यकीनन इससे भी ज़्यादा बड़े पैमाने पर इंसान की मौत अब दुनिया के कुछ हिस्सों में होती रही होगी ही, मैं अपने निकटतर अपने देश में हुई इन घटनाओं पर ध्यान दे जाता हूँ. हालांकि मेरा मानना है कि इंसान जबतक अपने क़रीब के तजुर्बों के बुनियाद पर तसव्वुर कर न सके तबतक दूसरों की दुख दर्द ठीक से समझ नहीं सकता.

और इस मृतकों के आंकड़े में ऐसे मामले शामिल नहीं हैं जहाँ मौत का सीधा कारण भूकंप या त्सुनामी से तो नहीं है, जैसे तबाही के बाद शरणस्थल पर सेहत बिगड़ जाने के बावजूद इलाज के अभाव और दवाओं की कमी की वजह से या गहरी निराशा और तनहाई में आत्माहत्या करके मर गए हों.

इस सिलसिले में मैं एक ९३ वर्षीया महिला के सुसाइड नोट की ख़बर कभी नहीं भूल पाऊँगा, जिसके अंत में महिला ने ऐसा लिखा कि "हर दिन परमाणु संयंत्र की बातें ही सुनते अब जीने का एहसास भी नहीं होता. ऐसा करने (खुदकुशी) के सिवा कोई रास्ता नहीं बचा है. अलविदा. मैं क़ब्र में ही पनाह ले लूँगी. माफ़ करना." (जापानी में यहाँ; अंग्रेजी में तो मूल पन्ना समय सीमा समाप्त होने से समाचार एजेंसी के जालस्थल से हटाया गया. पर उसकी प्रतिलिपि जाल पर बहुत देखने को मिल जाएगी, जैसे यहाँ).

मैंने यह ख़बर पढ़ी जब कुछ काम के अवसर पर चंद महीनों के लिए देश के बाहर ही रहा था. तब मैं देश की हालत पर बिलकुल फ़रामोशी में तो नहीं था, पर कहीं सारी घटनाओं के प्रभाव से दूर रहकर अपने कामकाज में व्यस्त रहा था. यह ख़बर पढ़कर लगा कि वास्तविकता की कड़वाहट में फिर से खींचा जाता रहा हूँ, और उतना काफ़ी उदास भी लगा कि इस रिपोर्ट पर दूसरों से बात करने से भी कुछ कतराता जाऊँ. पता नहीं, एक किसान बुढ़िया जिन्होंने गाँव में कहीं शांतिपूर्वक जीवन गुज़ारा था और जिन्हें ऐसे ही देहांत तक बिताना था, क्यों उन्हें अंतिम काल में ऐसा देखना पड़ा. कभी कभी मानो ऐसा सोचने को मज़बूर किया जाता हूँ पर मैं जितने भी सोचूँ इस सवाल पर निरुत्तर ही रह जाता हूँ. हाल ही देश में घर से दूर रहने वाले शरणार्थियों की संख्या लगभग सारे ३ लाख बताई जा रही है.


अब यहाँ की तरह पुनर्निर्माण कार्य की गति को लेकर चाहे कितना भी सराहा तो जाता रहे, न जाने इन तस्वीरों को देखकर ऐसा धारणा भी आता है कि जहाँ दृष्टि में बहुत से जो कुछ खो गए दुबारा बन जाते हैं, वहीं तरह तरह के अनदेखे वजूदों का एसास बेहद गहन हो जाता है जो उस नज़ारे से हमेशा के किए खो चुके और दुबारा वापस नहीं होते.