तोक्यो में अब वसंत का ताज़ा रंग दिन ब दिन गहरा आ रहा है. सौभाग्य से आज मौसम बहुत अच्छा रहा था और हवा भी काफ़ी नरम रही थी. सो मैं भी ऐसे वातावरण में कुछ उकसाया गया, और फिर यों ही साइकिल पे थोड़ी-सी सैर पर निकला.
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नहर के किनारे घने खिले फूल, जो वसंत का ख़ूब रंग जमा रहे हैं.
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गली के किनारे पड़ा एक पत्थर, जिसकी इबादत के लिए छोटा "तोरिई" द्वार बना रखा है.
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फिर चलते-चलते, अब आ गया समुंद्र तट और राष्ट्रीय मार्ग न॰ १ पर. और बायें दूर कोने में दिखाई दे रहा है, "एनोशीमा" लघु द्वीप.
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इस दो पहर के समय आसमान में काफ़ी धूल उड़ रही थी, जिसका धुंधलापन शायद नीचे वाले फ़ोटो (चार बजे का वही साहिल) से तुलना करके देखें तो पाया जा सकेगा. मौसम एजेंसी के अनुसार, यह धूल सुदूर चीन-मंगोलिया के रेगिस्तान से वायु में उड़ आई पीली रेत की वजह से मची.
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राष्ट्रीय मार्ग और इसके साथ-साथ चलने वाले नैरो गेज रेलवे के पीछे धूप में उभर आती है, द्वीप की रूपरेखा.
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चलते-चलते अब "कामाकुरा" शहर पहुँच गया, जो तोक्यो के निकट (लगभग ५० किमी दूर) एक पुराचीन नगर है, और जहाँ १२ वीं सदी के अंत से १४ वीं सदी के माध्यम तक एक शोगुनेट (सल्तनत सत्ता) की राजधानी रही थी.
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शहर के केंद्र में स्थित यह माननीय शिंतो मंदिर है, "त्सूरूगाओका हाचीमान-गू".
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इसके मैदान में पारंपरिक ढंग से निर्मित एक सुंदर मंच भी है, जहाँ काफ़ी भीड़ लग रही थी.
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पास आया तो पता चल गया कि वहाँ विवाह समारोह हो रहा था. विवाह स्थल के बराबर, या उससे भी ज़्यादा, बहुत शानदार और अनोखा समारोह था, जो शिंतो शैली में और मध्ययुगीन अभिजातों के सदृश मनाया जा रहा था.
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ख़ास तौर दुल्हन क्लासिक पोशाक "जूनी-हितोए" में ख़ूब सजी नज़र आ रही थी. यह परिधान परत-दर-परत पहनाए जाने वाले अलग-अलग रंग के कपडों से बनती है और मूलतः शाही महल की महिलाओं को ही पहनने की अनुमति दी जाती थी.
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मंदिर के आसपास छोटी गली के किनारे पाया गया है एक चेरी का पेड़.
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शाखाओं पर कई ही कलियाँ शीघ्र खिल गई थीं, ताहम बाक़ी कलियाँ सही वक़्त आने तक कुछ और देर का इंतज़ार में सो रही थीं.
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वृक्ष के तना-शाखा भी बहुत सुरूप बने हुए हैं, जैसे वृक्ष बयान करता हो यहाँ बसा हुआ अपना लंबा अरसा.
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नज़दीकी में वाक़े है, "केंचो-जी".
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यह ज़ेन बौद्ध धर्म के "रीनज़ाई" पंथ का प्राचीन और मानवीय मंदिर है जिसका निर्माण १३ वीं शताब्दी में हुआ. अब जापान में सबसे पुराने ज़ेन बौद्ध मठ कहा जाता है.
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वहाँ शांत बग़ीचा भी है जहाँ अच्छी तरह देखभाल कर रखी है और तरह तरह के फूलों से सजा भी होता है मगर कुछ अप्रत्यक्ष और ललित अंदाज़ में.
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यहाँ की चेरी की भी चंद कलियाँ अभी-अभी तो खिलने वाली थीं.
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पता नहीं क्यों उत्सकुता ऐसे दौरान बेहद बढ़ जाती है जब चेरी की कलियाँ आज खिले या न खिले, इसी उम्मीद से कहीं दिल भरपूर होते हुए दिन गुज़रा जाता है.
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और यही उत्सुकता शायद उस वक़्त से भी ज़्यादा चढ़ती है, जब हर जगह पूरी तरह से फूल खिल गए हैं.
4 टिप्पणियां:
नमस्ते, काश आपकी हिन्ढी जैसी अच्छी मेरी जापानी भाषा होती| खैर कोई बात नहीं अभी बहुत उम्र पड़ी है सिखने के लिए| लेकिन वो कहते हैं न आजकल जिंदगी का कोई भरोसा नहीं, आज लोक तो कल परलोक| परलोक जाने से पहले मेरी जापानी अच्छी हो जाये ये दुआ कीजिए, फिर चाहे आप जापान के कोने से दुआ कीजिए या दुनिया के किसी भी कोने से, क्योकि जनाब दुआ पर कोई कर नहीं लगता|
राजीव साब, आपकी कॉमेंट के लिए बहुत शुक्रिया.
हाँ जी, ज़रूर आपके लिए दुआ करेंगे, और मेरे लिए भी कि हम दोनों को इतनी जल्दी तो न परलोक जाना पड़े. और बाक़ी टाइम जितना भी हो, प्रयास करते रहें. वैसे, बौद्ध ग्रंथ 'सुत्तनिपात' में ऐसा शब्द है "अब गैंडे की सींग की तरह (सीधा) अकेले ही अपना रास्ता चलते रहो".
नमस्ते. बहुत अच्छा लगा आपका चिट्ठा पढकर.एक बात अजीब सी लगी कि आपके चिट्ठे में गुजराती?क्या आप मेरी शंका का समाधान करेंगे?
अमित साहब,
माफ़ कीजिए, बहुत लंबे दिनों तक आपकी टिपण्णी से अनजान रहने और जवाब न देने के लिए . आपका कहेना बिल्कुल सही है. हिंदी चिट्ठे के फॉर्मेट-भाषा के लिए गुजराती का इस्तेमाल होना कुछ अजीब बात तो होगा ही. यह तो बस शरारत से करता हूँ...
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